कई बार असफलता भी हाथ लगी
इसमें कोई संदेह नहीं कि उनकी निगरानी में भारत को कुछ बड़ी सफलताएं मिलीं हैं, चाहे वो फ़ादर प्रेम कुमार को आईएस के चंगुल से छुड़वाना हो या
श्रीलंका में छह भारतीय मछुआरों को फाँसी दिए जाने से एक दिन पहले माफ़ी
दिलवाना हो या देपसाँग और देमचोक इलाक़े में स्थायी चीनी सैन्य कैपों को
हटाना हो डोभाल को वाहवाही मिली है लेकिन कई मामलों में उन्हें नाकामयाबी
का मुंह भी देखना पड़ा है.
नेपाल के साथ जारी गतिरोध, नगालैंड के अलगाववादियों से बातचीत पर उठे सवाल, पाकिस्तान के साथ असफल बातचीत और पठानकोट हमलों ने अजित डोभाल को सवालों के कठघरे में खड़ा कर दिया है.
अंग्रेजी के अख़बार 'इंडियन एक्सप्रेस' के सह संपादक सुशांत सिंह कहते हैं, "आप मानेंगे कि जहाँ तक पड़ोसी देशों का संबंध है, भारत की स्थिति पिछले कुछ सालों में अच्छी नहीं रही है. चाहे मालदीव हो, चाहे नेपाल हो या पाकिस्तान के साथ कभी हाँ कभी ना का माहौल है. जहाँ तक आतंक और आंतरिक सुरक्षा का सवाल है, भारत पर दो-तीन आतंकवादी हमले हुए हैं, चाहे वो पठानकोट का हमला हो या गुरदासपुर का. कश्मीर में आतंकवाद बढ़ा है."
"इस क्षेत्र में अजित डोभाल से ज़्यादा उम्मीदें थीं क्योंकि ये उनका फ़ील्ड था. लेकिन यहाँ भी वो बेहतर काम नहीं कर पाए हैं."
वहीं जानेमाने सामरिक विश्लेषक अजय शुक्ल कहते हैं, "अजित डोभाल अपने समय के एक बहुत ही क़ाबिल और सफल इंटेलिजेंस अफ़सर रहे हैं. लेकिन ये कोई ज़रूरी नहीं कि अगर कोई शख़्स अपने फ़ील्ड का विशेषज्ञ हो तो दूसरे फ़ील्ड में भी उसको उतनी ही महारत हासिल होगी."
शुक्ल कहते हैं, "उनकी जानकारी विदेशी संबंधों, कूटनीति और सैनिक ऑपरेशनों के बारे में उतनी नहीं है जितनी इंटेलिजेंस के क्षेत्र में. जब ऐसा ऑपरेशन आता है जिसमें ये तीनों पहलू मौजूद होते हैं तो एक इंसान के लिए अपने स्तर पर सारे फ़ैसले लेना शायद उचित नहीं है. ऐसे जटिल ऑपरेशन के समय उन्हें सारे फ़ैसले ख़ुद लेने की बजाए क्राइसिस मैनेजमेंट ग्रुप की बैठक बुलानी चाहिए थी. अकेले ऐसे फ़ैसले लेने से बचना चाहिए था, जो कि बाद में इतने अच्छे साबित न हों."
दूसरी ओर एएस दुलत का मानना है कि डोभाल का अब तक का कार्यकाल बहुत अच्छा रहा है, क्योंकि मोदी और उनके के बीच तालमेल बहुत अच्छा है. असल में समय और इंसान के साथ स्टाइल बदलता है.
दुलत कहते हैं, "मैंने ब्रजेश मिश्र के साथ काम किया है. वो भी बहुत बड़ी हस्ती थे. वाजपेयी साहब के समय में तीन-चार बहुत बड़े संकट आए. लेकिन हर बार बहुत सोच-समझ कर रिएक्ट किया गया. आजकल रिएक्शन बहुत जल्दी आता है."
दुलत इसकी मिसाल भी देते हैं, "जब संसद पर हमला हुआ. ब्रजेश मिश्र पूरी घटना को टेलीविज़न पर देख रहे थे. किसी तरह की कोई एक्साइटमेंट नहीं थी कि वो भागे जाएं प्रधानमंत्री के पास. वो चुपचाप देख रहे थे, सिगरेट पी रहे थे और सोच रहे थे कि इसके परिणाम क्या होंगे. वो लंच के बाद ही प्रधानमंत्री के पास गए. उसके बाद ही उन्होंने भाषण दिया कि ये नहीं चलने वाला. फिर उन्होंने पाकिस्तान को चेतावनी दी."
दुलत के मुताबिक़, "उनके ज़माने में हुई हाइजैकिंग के बारे में आलोचना हुई कि आतंकवादी क्यों छोड़े गए. लेकिन इसके सिवा चारा भी क्या था? वहाँ बहुत ही विपरीत वातावरण था क्योंकि तालिबान से हमारा कोई संपर्क नहीं था. शुरू में तो वो लोग क़रीब सौ लोगों की रिहाई चाहते थे. लेकिन धीरे-धीरे इस माँग को पहले 75 पर लाया गया, फिर 25 पर और अंतत: तीन लोग छोड़े गए."
डोभाल पर एक आरोप यह भी लगता है कि वो हर जगह ख़ुद उपस्थित होकर हर चीज़ हैंडिल करना चाहते हैं. इंडियन एक्सप्रेस के सुशांत सिंह कहते हैं, "असल में डोभाल ने बहुत सारा भार अपने ऊपर ले लिया है. इसी का नतीजा ये रहा कि जब पठानकोट हुआ तो उन्हें चीन से होने वाली सीमा वार्ता स्थगित करनी पड़ी."
"130 करोड़ लोगों के देश में ऐसा नहीं होना चाहिए कि आप अपने सबसे बड़े पड़ोसी से बातचीत सिर्फ़ इसलिए स्थगित कर दें क्योंकि छह आतंकवादी किसी जगह में घुस गए हैं."
लेकिन डोभाल के समर्थक कहते हैं कि उन्होंने ये ज़िम्मेदारी इसलिए ली है क्योंकि नरेंद्र मोदी ने ख़ुद ये ज़िम्मेदारी उन्हें सौंपी है. दुलत कहते हैं, "बात वहीं आ जाती है कि मोदी चाहते क्या हैं? अगर मोदी डोभाल पर निर्भर रहते हैं और चाहते हैं कि वो ही सारे काम करें तो अजित डोभाल के सामने कोई दूसरा विकल्प नहीं है."
डोभाल के आलोचक कहते हैं कि उनकी भाषा परिष्कृत नहीं है. वो मुंहफट हैं और आउट ऑफ़ टर्न बोलते हैं. इस मामले में दुलत उनका बचाव करते हैं, "वो जो कुछ भी बोलते हैं सोच-समझ कर बोलते हैं. जहाँ तक उनके खरा खरा बोलने की बात है, हो सकता है वो जानबूझ कर कुछ ख़ास लोगों तक अपनी बात पहुंचाना चाह रहे हों और ऐसा किसी तय नीति के तहत हो रहा हो."
कई पूर्व जनरलों को ये बात नागवार गुज़री है कि पठानकोट में पूरी तरह से सैनिक ऑपरेशन को संभालने के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड (एनएसजी) को भेजा गया. सुशांत सिंह कहते हैं, "डोभाल के राज में भारतीय सुरक्षा, व्यक्तिकेंद्रित हो गई है. यहाँ हर स्थिति से निपटने के लिए पहले से तय तरीक़े हैं जिनकी अवहेलना की जा रही है. डोभाल ज़िम्मेदारी को बांटने में यक़ीन नहीं करते और हर चीज़ को ख़ुद माइक्रो मैनेज करना चाहते हैं."
फ़िलहाल डोभाल निशाने पर हैं. अगर उनके नेतृत्व में भी भारत में प्रो एक्टिव सामरिक सोच विकसित नहीं होती, तो ये उनके क़रीने से बनाए ज़बरदस्त ट्रैक रिकार्ड पर कुछ धब्बे लगा सकता है और ऐसा डोभाल शायद कभी नहीं होने देना चाहेंगे.
नेपाल के साथ जारी गतिरोध, नगालैंड के अलगाववादियों से बातचीत पर उठे सवाल, पाकिस्तान के साथ असफल बातचीत और पठानकोट हमलों ने अजित डोभाल को सवालों के कठघरे में खड़ा कर दिया है.
अंग्रेजी के अख़बार 'इंडियन एक्सप्रेस' के सह संपादक सुशांत सिंह कहते हैं, "आप मानेंगे कि जहाँ तक पड़ोसी देशों का संबंध है, भारत की स्थिति पिछले कुछ सालों में अच्छी नहीं रही है. चाहे मालदीव हो, चाहे नेपाल हो या पाकिस्तान के साथ कभी हाँ कभी ना का माहौल है. जहाँ तक आतंक और आंतरिक सुरक्षा का सवाल है, भारत पर दो-तीन आतंकवादी हमले हुए हैं, चाहे वो पठानकोट का हमला हो या गुरदासपुर का. कश्मीर में आतंकवाद बढ़ा है."
"इस क्षेत्र में अजित डोभाल से ज़्यादा उम्मीदें थीं क्योंकि ये उनका फ़ील्ड था. लेकिन यहाँ भी वो बेहतर काम नहीं कर पाए हैं."
वहीं जानेमाने सामरिक विश्लेषक अजय शुक्ल कहते हैं, "अजित डोभाल अपने समय के एक बहुत ही क़ाबिल और सफल इंटेलिजेंस अफ़सर रहे हैं. लेकिन ये कोई ज़रूरी नहीं कि अगर कोई शख़्स अपने फ़ील्ड का विशेषज्ञ हो तो दूसरे फ़ील्ड में भी उसको उतनी ही महारत हासिल होगी."
शुक्ल कहते हैं, "उनकी जानकारी विदेशी संबंधों, कूटनीति और सैनिक ऑपरेशनों के बारे में उतनी नहीं है जितनी इंटेलिजेंस के क्षेत्र में. जब ऐसा ऑपरेशन आता है जिसमें ये तीनों पहलू मौजूद होते हैं तो एक इंसान के लिए अपने स्तर पर सारे फ़ैसले लेना शायद उचित नहीं है. ऐसे जटिल ऑपरेशन के समय उन्हें सारे फ़ैसले ख़ुद लेने की बजाए क्राइसिस मैनेजमेंट ग्रुप की बैठक बुलानी चाहिए थी. अकेले ऐसे फ़ैसले लेने से बचना चाहिए था, जो कि बाद में इतने अच्छे साबित न हों."
दूसरी ओर एएस दुलत का मानना है कि डोभाल का अब तक का कार्यकाल बहुत अच्छा रहा है, क्योंकि मोदी और उनके के बीच तालमेल बहुत अच्छा है. असल में समय और इंसान के साथ स्टाइल बदलता है.
दुलत कहते हैं, "मैंने ब्रजेश मिश्र के साथ काम किया है. वो भी बहुत बड़ी हस्ती थे. वाजपेयी साहब के समय में तीन-चार बहुत बड़े संकट आए. लेकिन हर बार बहुत सोच-समझ कर रिएक्ट किया गया. आजकल रिएक्शन बहुत जल्दी आता है."
दुलत इसकी मिसाल भी देते हैं, "जब संसद पर हमला हुआ. ब्रजेश मिश्र पूरी घटना को टेलीविज़न पर देख रहे थे. किसी तरह की कोई एक्साइटमेंट नहीं थी कि वो भागे जाएं प्रधानमंत्री के पास. वो चुपचाप देख रहे थे, सिगरेट पी रहे थे और सोच रहे थे कि इसके परिणाम क्या होंगे. वो लंच के बाद ही प्रधानमंत्री के पास गए. उसके बाद ही उन्होंने भाषण दिया कि ये नहीं चलने वाला. फिर उन्होंने पाकिस्तान को चेतावनी दी."
दुलत के मुताबिक़, "उनके ज़माने में हुई हाइजैकिंग के बारे में आलोचना हुई कि आतंकवादी क्यों छोड़े गए. लेकिन इसके सिवा चारा भी क्या था? वहाँ बहुत ही विपरीत वातावरण था क्योंकि तालिबान से हमारा कोई संपर्क नहीं था. शुरू में तो वो लोग क़रीब सौ लोगों की रिहाई चाहते थे. लेकिन धीरे-धीरे इस माँग को पहले 75 पर लाया गया, फिर 25 पर और अंतत: तीन लोग छोड़े गए."
डोभाल पर एक आरोप यह भी लगता है कि वो हर जगह ख़ुद उपस्थित होकर हर चीज़ हैंडिल करना चाहते हैं. इंडियन एक्सप्रेस के सुशांत सिंह कहते हैं, "असल में डोभाल ने बहुत सारा भार अपने ऊपर ले लिया है. इसी का नतीजा ये रहा कि जब पठानकोट हुआ तो उन्हें चीन से होने वाली सीमा वार्ता स्थगित करनी पड़ी."
"130 करोड़ लोगों के देश में ऐसा नहीं होना चाहिए कि आप अपने सबसे बड़े पड़ोसी से बातचीत सिर्फ़ इसलिए स्थगित कर दें क्योंकि छह आतंकवादी किसी जगह में घुस गए हैं."
लेकिन डोभाल के समर्थक कहते हैं कि उन्होंने ये ज़िम्मेदारी इसलिए ली है क्योंकि नरेंद्र मोदी ने ख़ुद ये ज़िम्मेदारी उन्हें सौंपी है. दुलत कहते हैं, "बात वहीं आ जाती है कि मोदी चाहते क्या हैं? अगर मोदी डोभाल पर निर्भर रहते हैं और चाहते हैं कि वो ही सारे काम करें तो अजित डोभाल के सामने कोई दूसरा विकल्प नहीं है."
डोभाल के आलोचक कहते हैं कि उनकी भाषा परिष्कृत नहीं है. वो मुंहफट हैं और आउट ऑफ़ टर्न बोलते हैं. इस मामले में दुलत उनका बचाव करते हैं, "वो जो कुछ भी बोलते हैं सोच-समझ कर बोलते हैं. जहाँ तक उनके खरा खरा बोलने की बात है, हो सकता है वो जानबूझ कर कुछ ख़ास लोगों तक अपनी बात पहुंचाना चाह रहे हों और ऐसा किसी तय नीति के तहत हो रहा हो."
कई पूर्व जनरलों को ये बात नागवार गुज़री है कि पठानकोट में पूरी तरह से सैनिक ऑपरेशन को संभालने के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड (एनएसजी) को भेजा गया. सुशांत सिंह कहते हैं, "डोभाल के राज में भारतीय सुरक्षा, व्यक्तिकेंद्रित हो गई है. यहाँ हर स्थिति से निपटने के लिए पहले से तय तरीक़े हैं जिनकी अवहेलना की जा रही है. डोभाल ज़िम्मेदारी को बांटने में यक़ीन नहीं करते और हर चीज़ को ख़ुद माइक्रो मैनेज करना चाहते हैं."
फ़िलहाल डोभाल निशाने पर हैं. अगर उनके नेतृत्व में भी भारत में प्रो एक्टिव सामरिक सोच विकसित नहीं होती, तो ये उनके क़रीने से बनाए ज़बरदस्त ट्रैक रिकार्ड पर कुछ धब्बे लगा सकता है और ऐसा डोभाल शायद कभी नहीं होने देना चाहेंगे.
Comments
Post a Comment